कोशिस है उनकी चरण रज का एक कण बन पायें
9:34 PMशिक्षा संत स्वामी केशवानंद की 44 पुण्यतिथि पर शत शत नमन...
स्वामी केशवानन्द उदासीन ऐसे अनोखे और वीतरागता पुर्ण साधु थे जिन्होंने आत्म-कल्याण व मोक्ष-प्राप्ति के पथ पर चलने के साथ साथ मानवसेवा और अंतिम श्वांस तक लोक-कल्याण को उन्होने पूजा-पाठ, तप-जप और ध्यान-समाधि बनाया।
उस खाली हाथ फकीर ने जन-सहयोग से करोड़ों रूपए की शिक्षा-संस्थाएं खड़ी कर दीं और 64 वर्ष के लोक-सेवा-काल में जन-जागरण का जो विशाल कार्य किया उसका मूल्य तो रूपयों में आंका ही नहीं जा सकता।
आज भी उनकी तपस्चर्या का असर संगरिया में बड़े स्तर पर चल रहे सेवा कार्यों मे स्पष्ट दिखाई देता है
राजस्थान की ओर से चुने जाकर सन् 1952 से 1964 तक वे दो बार संसद सदस्य (राज्य सभा) रहे और उस काल में उन्हें जो भत्ता मिला उसे उन्होंने ग्रामोत्थान विद्यापीठ के संग्रहालय के विस्तार में लगा दिया।
स्वतंत्रता-सेनानी होने के नाते उन्होंने कभी न किसी भत्ते की मांग की और न ही किसी ताम्रपत्र की चाह रखी।
वे इतने निरभिमान थे कि स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी भागीदारी को वे देश के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन मात्र कहते थे।
अपनी चिरकालिक समाज-सेवा के लिए वे कहा करते थे कि मैंने तो लोगों से लेकर लोगों के ही हित में लगाया है। इसमें मेरा अपना क्या है?
वस्तुतः वे निष्काम कर्मयोगी थे।
यद्यपि स्वामी केशवानन्द ने स्व-प्रचार और अपनी प्रशंसा को कभी पसन्द नहीं किया फिर भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने उन्हें राष्ट्र-भाषा हिन्दी की सेवा के लिए क्रमशः ”साहित्य वाचस्पति” और ‘‘राष्ट्रभाषा गौरव’’ की उपाधियों से विभूषित किया।
सिख संगत ने उन्हें सन् 1956 में पवित्र हरि-मंदिर साहिब अमृतसर के उनके हाथो लगे स्वर्ण-पत्रों के जीर्णोद्धार -उत्सव का मुख्य अतिथि बनाकर सम्मानित किया, जिन्हें महाराजा रणजीत सिंह ने सन् 1801 में स्वर्ण मन्दिर को भेंट किया था।
इलाके के श्रद्धालु लोगों द्वारा प्रसिद्ध पत्रकार और संसद सदस्य डा0 बनारसीदास चतुर्वेदी और इतिहासकार ठाकुर देशराज के संपादकत्व में तैयार करवाया गया ‘‘स्वामी केशवानन्द अभिनन्दन ग्रन्थ’’ राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया द्वारा स्वामी जी को एक विशाल सम्मेलन में 9 मार्च 1958 को भेंट किया गया।
पुरातत्व विशेषज्ञ डा0 वासुदेवशरण अग्रवाल स्वामी जी का संग्रहालय देखने सन् 1948 में ग्रामोत्थान विद्यापीठ में आए।
सन् 1953 में रेलवे मंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री, सन् 1957 में प्रसिद्ध हिन्दी-सेवी राजर्षि पुरूषोतमदास टण्डन और सन 1959 में प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इन्दिरा गांधी और आचार्य विनोबा भावे संगरिया पधारे और ग्रामोत्थान विद्यापीठ की शैक्षिक प्रवृतियों को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुए।
अपनी उसी यात्रा का स्मरण करते हुए प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वामी जी की पुण्य-तिथि (13 सितम्बर) पर प्रकाशित होने वाली ‘‘स्मारिका’’ के लिए दिए गए अपने 6 सितम्बर, 1984 के सन्देश में लिखा था, ‘‘स्वामी केशवानन्द जी स्वतंत्रता के एक सजग प्रहरी थे। साथ ही उन्होंने राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में शिक्षा, महिला कल्याण और दलित वर्ग के उत्थान के लिए सराहनीय कार्य किया। संगरिया में ग्रामोत्थान विद्यापीठ ग्रामीण क्षेत्र में उनके कार्यों का एक जीवित स्मारक है।’’
फाजिल्का की गुरुप्रणाली के स्वामी कुशलदास जी उदासीन के महान शिष्य स्वामी जी ने सन् 1917 में अबोहर-फाजिल्का क्षेत्र में समाज सुधार और हिन्दी-भाषा-प्रचार का कार्य आरम्भ किया था।
उसी वर्ष अविद्या और रूढ़िवादी मान्यताओं से घिरे बीकानेर संभाग के गांवों की दशा सुधारने का संकल्प लेकर वहां शिक्षा प्रचार के लिए चौ. बहादुर सिंह भोबिया ने 9 अगस्त 1917 को जाट एंग्लो-संस्कृत मिडिल स्कूल संगरिया की नींव डाली।
श्रीगंगानगर (तत्कालीन रामनगर) के निवासी चौ. हरिश्चन्द्र नैण वकील भी अविद्या के कारण इलाके के गांव-वासियों की दुर्दशा और पिछडेपन से चिन्तित थे, अतः वे भी शिक्षा-प्रचार के शुभ कार्य में चौ. बहादुर सिंह का पूरा साथ देने लगे।
उनके प्रयत्नों से ही पन्नीवाली के ठाकुर गोपाल सिंह राठौड़ ने संगरिया में 14 बीघा 3 बिस्वा भूमि दान में दी वहां 5 कच्चे कमरों और दो कच्ची बैरकों का निर्माण हुआ और विद्यालय एवं छात्रावास का संचालन होने लगा। विद्यालय का सब प्रकार का व्यय गांवों से दान-संग्रह करके पूरा किया जाता था।
छात्रों की शिक्षा निःशुल्क थी।
सन् 1923 तक जाट विद्यालय संगरिया के प्रबन्ध में गोलूवाला, घमूड़वाली और मटीली में भी शाखा प्राथमिक-शालाएं प्रारम्भ कर दी गईं।
जून सन् 1924 में चौ. बहादुर सिंह का देहावसान हो गया और विद्यालय संचालन का भार प्रमुखतः चौ. हरिश्चन्द्र नैण पर रहा।
अगले आठ वर्ष तक संगरिया के निकटवर्ती गांवों एवं स्थानीय सज्जनों की एक प्रबन्ध समिति गठित करके और स्वयं संचालन सचिव रह कर वे आर्थिक संकट से जूझते हुए विद्यालय का संचालन ही नहीं करते रहे अपितु उन्होंने मानकसर, हरीपुरा, दीनगढ़, पन्नीवाली, नगराना, नुकेरा, कुलार और चौटाला गांवों में भी शाखा-प्राथमिक शालाएं खुलवाईं।
स्वामी केशवानन्द जी भी उस समय अबोहर के साहित्य सदन के संचालन के लिए दान-संग्रह के सिलसिले में संगरिया के आस-पास के गांवों में आते-जाते जाट विद्यालय में रुककर यहां के कार्य को देख चुके थे।
जब आर्थिक संकट काबू से बाहर हो गया, तो जाट विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने जाट स्कूल को बंद करने का मन बनाकर, उस पर निर्णय लेने के लिए 18 दिसम्बर 1932 को शिक्षा-प्रेमी सज्जनों की एक बैठक बुलाई और उसमें स्वामी केशवानन्द जी को भी आंमत्रित किया।
विद्यालय बंद करने का प्रस्ताव सामने आते ही स्वामी जी ने उससे असहमति जताई और साहित्य सदन अबोहर का कार्यभार अपने ऊपर होते हुए भी उपस्थित सज्जनों के अनुरोध पर उसके संचालन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया।
स्वामी जी का यह निर्णय इलाके के गांवों के व आने वाली पीढीयों लिए कालान्तर में वरदान सिद्ध हुआ। स्वामीजी विद्यालय की दशा सुधारने में जी-जान से जुट गए
उन्होंने इलाके से दान-संग्रह करके सन् 1935 तक आते आते पहले के पांच कच्चे कमरों के स्थान पर मुख्य पक्का विद्यालय-भवन सरस्वती-मंदिर, औषधालय-रसायनशाला, पुस्तकालय-भवन और यज्ञशाला, व्यायामशाला, ‘‘आर्यकुमार आश्रम’’ छात्रावास और दो पक्के जलाशयों (कुण्डों) से युक्त सुन्दर शिक्षा-मंदिर खड़ा कर दिया।
सन् 1943 तक विद्यार्थी-आश्रम-छात्रावास व सभा-भवन, गौशाला-भवन, पांच अध्यापक-निवास, अतिथिशाला, स्नानागार और एक कुण्ड निर्मित करवाकर विद्यालय को हाई स्कूल में उन्नत कर दिया गया।
सन् 1948 तक वहां आयुर्वेद शिक्षा, वस्त्र-निर्माण और सिलाई, काष्ठ-कला और धातु-कार्य आदि उद्योगों की शिक्षा चालू कर संस्था का नाम सभी जातियों सभी धर्मों को समर्पित करते हुए पुज्य स्वामी जी ने ‘‘ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया’’ कर दिया गया।
स्वामी जी ने मरूस्थल में प्रचलित मृत्युभोज, अनमेल विवाह, बालविवाह, नारी उत्पीड़न, पर्दा-प्रथा, शोषण और नशा-सेवन आदि, समाज को गरीबी और कष्टों में डालने वाली बुराइयों का भी खूब अनुभव किया था। इसलिए वे लोक-सेवा का मार्ग पकड़ते ही सन् 1908 से इनके विरोध में प्रचार करते आ रहे थे।
सन् 1942 में जाट विद्यालय संगरिया की रजत-जयन्ती के अवसर पर सार्वजनिक सभा में उन्होंने मृत्यु-भोज (औसर) पर कानूनी पाबन्दी लगाने का प्रस्ताव पारित करवा कर बीकानेर-सरकार को भेजा था जिसे सरकार ने स्वीकार कर राज्य में मृत्यु-भोज को कानून-विरूद्ध ठहराया था।
‘मरूभूमि सेवा कार्य’’ के स्कूलों में भी इन बुराइयों के विरूद्ध प्रचार किया जाता था। सन् 1967 में स्वामी जी को श्रीगंगानगर जिला सर्वोदय मण्डल और जिला नशाबन्दी समिति का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने प्रचारार्थ एक इश्तिहार में लिखा, ‘‘हम इतिहास-प्रसिद्ध सर्वखाप पंचायत का सातवां अधिवेशन संगरिया में बुलाकर विवाह-प्रथा में सुधार करना चाहते हैं, दहेज की कुप्रथा को मिटाकर विवाहों में पांच बाराती ले जाने और दान में एक रूपया और नारियल देने की प्रथा चलाना चाहते हैं। विवाहों में फिजूल-खर्ची का रूपया बचाकर बच्चों की, विशेषकर कन्याओं की शिक्षा में लगाना चाहते हैं.
इसके अलावा इस क्षेत्र में शराब और तम्बाकू के दुर्व्यसनों को हटाने तथा आपसी झगड़ों का निपटारा कराने के लिये ग्रामीण लोगों के थाना-कचहरियों में जाने के विरुद्ध प्रचार करना और पंच फैसलों के द्वारा झगड़े निपटाने के पक्ष में जनमत बनाना चाहते हैं।’’ उन्होंने इस आशय के बड़े-बड़े चार्ट भी बनवाकर इलाके में गाँवों की दीवारों पर लगवाये।
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